
भगवान गौतम बुद्ध का जीवन परिचय – Gautam Budhha Biography In Hindi

भगवान गौतम बुद्ध का जीवन परिचय – महात्मा बुद्ध ने मनुष्य को जीवन जीने की कला प्रदान की । यह घटना अद्भुत थी । उनका जन्म , बोध और मृत्यु एक ही तिथि वैशाख पूर्णिमा को हुए थे । बुद्ध पूर्णिमा से तात्पर्य ज्ञान की गहन आत्मचेतना से है ।
गौतम बुद्ध द्वारा की गई वर्षों की तपश्चर्या के बाद अर्जित निराकार अभिबोध के परमानंद में मंद – मंद लहराना और जीवन – मृत्यु के काल रहस्य की पहचान होना ही बुद्ध पूर्णिमा है । बुद्ध अर्थात ज्ञान के ब्रह्मांड का परमाणु बनना ।
पूर्णिमा अर्थात परम गति को प्राप्त होना । महात्मा बुद्ध के अतुल आत्मबोध , बोद्धिसत्त्व और सब कुछ के उपरांत घटित उनका महाप्रयाण ही बुद्ध पूर्णिमा का समुचित सार है । राज्य , धन , ऐश्वर्य , आत्मज – स्वजन , सब कुछ छोड़ परम जीवन सत्य के शोध में निकले और अंततः जीवोचित बोधत्व को प्राप्त करने वाले बुद्ध सदियों से अभिज्ञान तथा आत्मबोध के महान माध्यम बने हुए हैं ।
मानुषिक वैर , ईर्ष्या , धर्माडंबर , द्विचरित्रता , विश्वासघात तथा अनावश्यक मनुष्याभिनय , आग्रह – पूर्वाग्रह , भाग्य – दुर्भाग्य , संबंध – निबंध , आसक्ति – विरक्ति , स्वीकार – अस्वीकार , लगाव – अभाव जैसे अभिमानित जीवन समाज के दुर्गुणों से सुदूर आत्माकाश के टिमटिमाते सितारे महात्मा बुद्ध जीवन संबंधी दार्शनिक ज्ञान के अद्भुत प्रेरणास्त्रोत बने ।
भगवान गौतम बुद्ध का जीवन परिचय – Gautam Budhha Biography In Hindi
गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी नामक स्थान में हुआ था , परंतु उनका लालन – पालन एक छोटे साम्राज्य कपिलवस्तु में हुआ था । ये दोनों ही क्षेत्र आज की भू – स्थिति में नेपाल में हैं । बुद्ध के जन्म के समय ये क्षेत्र या तो वैदिक सभ्यता की सीमा में थे अथवा उसके बाहर , यह सुनिश्चित नहीं है ।
बुद्धकाल में रचित परंपरागत जीवनी के अनुसार उनके पिता राजा शुद्धोधन शाक्य राष्ट्र के प्रमुख थे । शाक्य जनजाति कई पुरातन जनजातियों में से एक थी ।
भगवान बुद्ध का जन्म
महात्मा बुद्ध का पारिवारिक नाम गौतम था । उनकी माता रानी महामाया एक कोलियान राजकुमारी थीं । जिस रात सिद्धार्थ ने अपनी माँ के गर्भ को धारण किया , रानी महामाया ने स्वप्न देखा कि छह सफेद दाँतों वाला एक सफेद हाथी उनके पेट के दाई नेपाले ओर प्रवेश कर गया है ।
शाक्य कथानुसार यह भी बताया जाता है कि गर्भावस्था के दौरान गौतम की माता कपिलवस्तु छोड़ अपने पिता के देश चली गई थीं तथा यात्रा के दौरान ही राह में लुंबिनी स्थित एक बाग में साल के वृक्ष के नीचे उन्होंने एक शिशु को जन्म दिया । इस प्रकार दस चंद्र माह के बाद अर्थात वैशाख पूर्णिमा को , जब चंद्रमा नभ पर देदीप्यमान था ,
जन्म के बाद माता का देहांत
महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ । उनके जन्म के सप्ताह भर बाद उनकी माता का देहावसान हो गया । गौतम के नामकरण संस्कार में ही उन्हें सिद्धार्थ नाम दिया गया , जिसका अर्थ है अपने संकल्पित लक्ष्य को प्राप्त करने वाला । उस युग के एक प्रसिद्ध भविष्यद्रष्टा एकांतवासी संत असिता को पूर्वाभास हो गया कि दुनिया में एक महान व्यक्ति आने वाला है ।
इस आशा में वे बुद्ध के जन्मोत्सव में आए । जब वे सिद्धार्थ के पिता से उनके भविष्य के बारे में मंत्रणा कर रहे थे तो बालक सिद्धार्थ ने उनके लंबे केशों में अपना एक पैर फँसा दिया । इस घटना और सिद्धार्थ के अन्य जन्मचिह्नों का संज्ञान लेकर उन्होंने बड़ी विचित्र मन : स्थिति में घोषित किया कि यह बालक या तो एक महान चक्रवर्ती राजा बनेगा या एक महान संत योगी ।
अन्य मनीषियों ने भी उनके बारे में अपनी दो – दो भविष्यवाणियाँ कीं । इनमें से केवल नौजवान कौंडिन्य संत ने निर्विकार रूप से कहा कि सिद्धार्थ एक बुद्ध बनेगा ।
गौतम सिद्धार्थ का लालन – पालन राजसी ठाठ – बाट से तो हुआ , लेकिन उनकी मनोदशा सामान्य मानवीय जीवन के मनोरंजन और दूसरे आनंद देने वाले सुख – साधनों से : विपरीत ही बनी रही ।
सिदार्थ का विवाह
16 वर्ष की आयु में पिता ने उनका विवाह यशोधरा से सुनिश्चित किया । यशोधरा ने राहुल नामक बालक को जन्म दिया ।
सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु में गृहस्थी के 29 वर्ष व्यतीत किए । यद्यपि सिद्धार्थ को उनकी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार प्रत्येक सुविधा व वस्तु उपलब्ध कराई गई थी , तथापि वे सघनता से अनुभव करते कि उनके जीवन का परम तथा अंतिम लक्ष्य कुछ और ही है ।
पिता की इच्छा थी कि सिद्धार्थ एक महान राजा बनें । इस हेतु उन्होंने सिद्धार्थ को धर्म , वेद – पुराणों से लेकर मानवीय जीवन के कष्टों की गहन शिक्षा प्रदान की , परंतु अंत में सब निष्फल सिद्ध हुए ।
29 वर्ष की आयु में राजभवन का त्याग
वास्तविक जीवनलक्ष्यों की खोज हेतु 29 वर्ष की आयु में उन्होंने घर – परिवार और भव्य राजभवन त्याग दिया । वे एक अनिश्चित मार्ग पर बढ़ चले ।यात्रा के दौरान उन्हें रोग – व्याधि , वृद्धावस्था से घिरे मनुष्यों और सार्वजनिक जीवन की कठिनाइयों – विसंगतियों को देखने का अवसर मिला तो वे मनुष्य जीवन में उत्पन्न होने वाली इन परिस्थितियों के प्राकृतिक कारक की खोज के लिए बेचैन हो उठे ।
युवक राजकुमार को अपने सारथी चन्ना की जीवन मृत्यु संबंधी विवेचनाएँ भी उद्वेलित कर गईं । इसका प्रभाव यह हुआ कि उन्होंने सारथी को वापस भेज दिया और स्वयं ही अकेले यात्रा करने लगे ।
राजा बिंबसार ने सिद्धार्थ के तपस्वी जीवन का उद्देश्य सुनने के उपरांत और उनके त्याग से प्रभावित होकर उन्हें अपना सिंहासन सौंपने का प्रस्ताव रखा ।
सिद्धार्थ ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया , लेकिन उन्हें वचन दिया कि अपनी तपस्या से उन्हें जो भी ज्ञान प्राप्त होगा वे उनके राज्य मगध में उसका प्रथम प्रवचन करेंगे ।
आरंभ में सिद्धार्थ ऐसे संतों और साधकों के साथ तप करते रहे , जो इस प्रक्रिया में व्यक्तिगत लक्ष्यहीनता से ग्रस्त थे ।
भूखा रहते हुए और भोजन को प्रतिदिन केवल एक दाने या पत्ते तक सीमित कर बुद्ध अत्यंत दुर्बल हो गए । ऐसी दुर्बलावस्था में एक दिन नदी में स्नान करते समय वे मूच्छित होकर गिर पड़े ।
किसी तरह वे नदी में डूबने से बच गए , लेकिन ऐसे व्यवधान भी उन्हें उनके लक्ष्य से विचलित न कर सके । बुद्ध ने बिहार , भारत में पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ 5 वर्षों तपस्या की ।
यह वृक्ष बोधिवृक्ष के नाम से विख्यात है । साधना अवधि में वे तब तक चक्षु नहीं खोलते थे , जब तक विचारित विषय से संबंधित सत्यानुसंधान नहीं कर लेते थे । धर्म के बारे में तत्कालीन समाज में विभिन्न मतभेद व्याप्त थे ।
इस भय से बुद्ध निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि वे मनुष्यों को धर्म का ज्ञान दें अथवा नहीं । वे चिंतित थे कि मानव लालच , ईर्ष्या और भ्रम की अतियों के कारण धर्म के सर्वोचित सत्य को समझने में असमर्थ होंगे ; क्योंकि धर्म को समझने के लिए इसकी गूढ़ता , सूक्ष्मता और कठिनता आड़े आएगी ।
मृत्यु
बुद्ध द्वारा प्रशस्त आत्मसाधना मार्ग समस्त लोगों के लिए खुला था । इसमें किसी धर्म , वर्ग , जाति , उपजाति या समाज अथवा जीवनपद्धति संबंधी पूर्वाग्रह के कारण कोई प्रतिबंध न था । कहा जाता है कि विपक्षी धार्मिक समूहों द्वारा उनकी हत्या के अनेक प्रयास किए गए तथा उन्हें कारावास में डालने का प्रयत्न भी किया गया ।
बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में घोषणा की – वे शीघ्र परिनिर्वाण की स्थिति में पहुंचेंगे या एक ऐसी अवस्था में चिरस्थिर होंगे , जहाँ भौतिक शरीर को त्यागकर वे अंतिम मृत्युहीन दशा को प्राप्त होंगे । इसके उपरांत उन्होंने अपना अंतिम भोजन किया , जो उन्हें कुन्डा नामक लोहार ने भेंटस्वरूप दिया था । इसे ग्रहण करने के पश्चात वे गंभीर रोग से पीड़ित हो गए ।
रोगावस्था में उन्होंने अपने सहवर्ती को कहा- ” कुन्डा के पास जाकर उससे कहो कि उसके द्वारा दिए गए भोजन में बुद्ध की संभावित मृत्यु का कोई कारण नहीं है । ” मृत्यु के इस महाकष्ट में भी उन्होंने एक भिक्षु को दीक्षा प्रदान की । अंत में वे मृत्यु को प्राप्त हुए अर्थात उनका महापरिनिर्वाण हुआ । मृत्यु के बाद उनके शरीर का दाह संस्कार किया गया । बुद्ध की मृत्यु की वास्तविक तिथि सदा संदेह में रही ।
श्रीलंका के ऐतिहासिक शास्त्रों के अनुसार सम्राट अशोक का राज्याभिषेक बुद्ध की मृत्यु के 218 वर्ष पश्चात हुआ । चीन के एक महायान प्रलेख के अनुसार अशोक का अभिषेक बुद्ध की मृत्यु के 116 वर्ष पश्चात हुआ । इसलिए थरावाड़ा प्रलेखानुसार बुद्ध की मृत्यु का समय या तो 486 ईसवी अथवा महायाना प्रलेखानुसार 383 । ईसवी है ।
फिर भी पारंपरिक रूप में उनकी मृत्यु की जो वास्तविक तिथि थरावाड़ा देश में स्वीकार की गई , वह 544 5 या 543 ईसवी थी । ने मानव जाति की दूषित मनोवृत्ति को 5 परिशुद्ध करने की जो आध्यात्मिक योग – क्रियाएँ निर्मित । की , उनका महिमामंडन वैदिक चिंतन के अनेक प्रमुख न शास्त्रों में भी किया गया है ।
स्वामी विवेकानंद ने भी में उनकी व्यापक अभिप्रयाण प्रणालियों का सम्मानपूर्वक व उल्लेख किया है । आज के भौतिकीय युग क आत्मविकास के रास्तों पर चलने की अत्यंत आवश्यकता को है , तभी वर्तमान जनजीवन में मनुष्यों की धन के प्रति ड़े लिप्सा और इससे उत्पन्न होने वाली बुराइयों , विसंगतियों का अंत हो सकेगा ।
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